Tuesday 25 October 2016

प्यार की मौन व्याख्या

प्यार की मौन व्याख्या 

ये कैसा शीर्षक हुआ ? अभी बस लिखने ही बैठा था कि मेरे एक परम मित्र ने एकाएक मुझसे पूछ लिया |
फिर मेरे मन में भी यही प्रश्न घूमने लगा कि किसी विषय की व्याख्या मौन रहकर भी क्या संभव है ?

पर बात जब प्रेम की हो तो यह बताना आवश्यक है कि प्यार एक अहसास है... एक अनुभूति जिसके लिए शब्दों के तंतु पर भावनाओ कि सारंगी बजाने कि तनिक भी आवश्यकता नहीं अपितु ये तो वह ओस की बूँद है जिसमे ह्रदय के ओर - छोर स्वतः ही भीग जाते हैं |

मौन स्पर्श ,  मौन स्वीकृति और मौन समर्पण ही सच्चे प्रेम की पृष्ठिभूमि हैं ।अपनी पद्यावली से कुछ पंक्ति यहाँ पर समर्पित करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ :

" जो भाव असीमित दृश्यपटल पर , व्याकुल हैं बाहर आने को...
  दस्तक देते हैं अधरों पर अक्सर , कितना कुछ है बताने को...
  पर अधरों की दशा तो देखो , किस भांति परस्पर सिले जा रहे हैं ।
  मानो शब्द मूर्छित हुए हैं ... और चेतन अचेतन की दशा पा रहे हैं || "

वास्विकता भी यही है ...शब्दों को निमंत्रण देने से पहले प्रेम आँखों के माध्यम से अपनी बात कह चुका होता है । और यकीन मानिये प्रेम अगर सच्चा है तो कुछ कहने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी । इस अनुभूति का असल स्वाद मौन रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है । शायद गीतकारो ने यही भांपकर ये गीत लिखे -
' ना बोले तुम ना मैने कुछ कहा ...'

' कुछ ना कहो कुछ भी ना कहो....' आदि ।

वैसे भी "मौनं स्वीकृतिम लक्षणं " ...

तो दोस्तों मौन रहकर प्रेम की तलहटी में छुपे आनंद की प्राप्ति कीजिये... बहुत अच्छा लगेगा ।

धन्यवाद ।

आपका ...
कविराज तरुण

दम्भ

न्यायोचित है दम्भ अगर तो
मै कौशल दिखलाता हूँ ।
तोड़ भुजाओं का साहस
तुमको परलोक सिधाता हूँ ।।

पर विवेक मेरा कहता है
क्यों असुरों से संग्राम करूँ ।
कर दूं अलग थलग दुनियाँ से
बस इतना ही काम करूँ ।।

तुम आग जलाये बैठे दिल में
मुझे सौहार्द का दीप जलाने दो ।
मत छेड़ो कालदर्प को मेरे
मुझे विकास का रथ चलाने दो ।।

इस अश्वमेध के यज्ञ में मेरे
व्यवधान कोई मत कर देना ।
गलती से भी मित्र पड़ोसी
मेरे विवेक को मत हर लेना ।।

वर्ना रण का बिगुल बजा
बलिवेदी पर शीश उतारूंगा ।
घर के भीतर घुसकर तेरे
चुन चुनकर दानव मारूँगा ।।

*कविराज तरुण*