Saturday 2 September 2017

ग़ज़ल 30- आजा रहबर मिरे

*आजा रहबर मेरे* कविराज तरुण 
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आजा' रहबर मिरे , ख़्वाब के दरमियाँ ,
ये तो' अपनी मुहब्बत की' शुरुआत है ।
फेरी' तुमने जो' हैं , सरसरी सी निगह ,
दिल से' होने लगी दिल की' कुछ बात है ।

रा-स-तों से मिटे , खुद-ब-खुद फ़ासले ,
हम कदम को मिटाकर युं चलने लगे ।
शाम इक जाम सी हो गई है हसीं ,
मुस्कुराने लगे दिल के' हालात हैं ।।

पास में बैठकर, लफ्ज़ दो बोल दो ,
अपनी' आँखों से' पयबंद मय घोल दो ।
हो तुझी में फ़ना , कुछ न तेरे बिना ,
इन लबो पर लबो की ही' नगमात है ।।

दिल मुलाजिम तिरा, हो गया आजकल ,
इक इशारे पे' गुल रोज खिलने लगे ।
रूह की अस्ल में , तुझको' शामिल किया ,
बस मे' अपने नही आज जज़्बात हैं ।।

कह रहा ये तरुण , हमसफ़र तुम मिरे ,
देख लेंगे ज़माना फिकर क्यों करे ।
मै हूँ' तुम हो जहाँ , बस वही आसमां ,
साथ है ये फलक साथ दिनरात है ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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